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Showing posts from November, 2024

आत्मज्ञान ही मोक्ष का मार्ग है।

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वास्तव में मोक्ष का मार्ग क्या है? क्या वास्तव में यह धर्म, अर्थ, या काम संगत है, या जीवन, मृत्यु, और पुनर्जन्म के चक्र से आज़ाद होना मोक्ष है? मोक्ष एक दार्शनिक शब्द है, जो सभी धर्मों में प्रमुखता से आता है जिसका अर्थ है मोह का क्षय होना या एक शब्द में इसे कहे तो ‘मुक्ति’। संसार में जन्मा मानव मोक्ष अथवा मुक्ति का मार्ग पाना चाहता हैं। अब ऐसे में प्रश्न उठता है कि हमें ‘मुक्ति’ किससे चाहिए और क्यों चाहिए? क्या मोक्ष का असल तात्पर्य जीवन के अंतर्गत है, या मृत्यु के पश्चात? मनुष्य जीवन को चार प्रमुख उद्देश्यों में बांटा गया है – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । ये चारों आपस में गहरा संबन्ध रखते हैं। धर्म का अर्थ है वे सभी कार्य जो आत्मा व समाज की उन्नति करने वाले हों। अर्थ से तात्पर्य है किसी अच्छे कलात्मक कार्य द्वारा धनार्जन करना। काम का अर्थ है जीवन को सात्विक व सुःख सुविधासंपन्न बनाना। मोक्ष का अर्थ है आत्मा द्वारा अपना और परमात्मा का दर्शन करना। मानव जीवन में मोक्ष से जुड़ी अलग अलग धारणाएं और विचार देखने और सुनने को मिलती है। सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्रायः आत्मवादी...

डर के आगे जीत है.

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"डर हमारी चेतना को सचेत करके सही मार्ग अपनाने में मदद करता है, जो हर जीवित प्राणी में स्वाभाविक रूप से मौजूद है। डर हमारे बेहतर व्यक्तित्व के निर्माण में या सफल जीवन के निर्माण में आवश्यक है।” डर एक अप्रिय भावना है, जो किसी खतरे या नुकसान की आशंका से पैदा होती है। डर को कई नामों से जाना जाता है, जैसे कि भय, खौफ़, घबराहट, चिंता, इत्यादि। डर की हद और सीमा हर प्राणी में अलग अलग हो सकती है, लेकिन भावना एक जैसी ही होती है। व्यक्तियों में डर कई प्रकार के आकार लेते है। अलग अलग अवस्थाओं में डर से हमारे शारीरिक और मानसिक प्रतिक्रियाएं देखने को मिलती है। हर व्यक्ति के भीतर का भय एक रेस का हिस्सा है, वह चाहें जिस भाव में हो। प्रत्येक प्राणी चाहे वो कोई मनुष्य हो या जानवर डर स्थाई रूप से सबमें मौजूद है। डर यानी भय से प्राणी सही मार्ग अपनाता है या गलत, पर दोनों ही स्थितियों में डर का होना स्वाभाविक है। व्यक्तियों के डर केवल उनके स्वभाव पर निर्भर नहीं होते हैं, बल्कि उनके पारिवारिक संबंधों, सामाजिक संबंधों और संस्कृति से भी आकार लेते हैं, जो उनकी समझ को निर्देशित करते हैं कि कब और...

हमारा शाश्वत जीवन

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क्या हमारे जीवन काल में एक शरीर के नष्ट होने से हमारा अस्तित्व खत्म हो जाता है? यह मेरा कोई प्रश्न नही है बल्कि एक एहसास जो स्वयं में विचार करने के लिए प्रेरित करता है और अपने मौजूदगी को एक सार्थक दिशा देने में मदत करता है। जिस प्रकार किसी वृक्ष का बीज मिट्टी के गर्भ में समाहित हो अंकुरित होकर फिर एक वृक्ष का रुप लेता है तो वह वृक्ष सदा के लिए शाश्वत हो जाता है। उसी प्रकार मानव जीवन भी माता–पिता के रूप में सदा के लिए शाश्वत हो जाता है। संस्कारों की श्रृंखला हमारे जीवन में रिश्तों के प्रति बहुत मायने रखता है, जो हमारे जीवन को प्राकृतिक संरचनाओं में अत्यंत रमणीय बनाता है। वह रिश्ता चाहे प्राकृतिक रूप से हो, या हमारे आचरण, व्यवहार इत्यादि से बनाए हुए हो। पति–पत्नी होना वह एक अवस्था है। उस पति–पत्नी के अंश से जब किसी पुत्र या पुत्री का जन्म होता है, तब वह पति–पत्नी एक माता–पिता के अवस्था में प्रवेश कर जाते है। यही अवस्था की श्रृंखला सदा के लिए हमें शाश्वत बनाता है। एक शरीर नष्ट होता है, पर उस शरीर का अंश शाश्वत होता है। हम अपने जीवन में रिश्तों को सामान्य नजरिए में जब बेहतर ढंग...